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बीत रहा है समय / अशोक तिवारी

बीत रहा है समय

बीत रहा है समय
ख़ाली हो रहे हैं मर्तबान
यादों के
सूख रही है जहां मन में उपजी हरी दूब
फूल रहे हैं मन में हज़ारों गुलमोहर वहीं पर

मन करता है
स्विच दबाकर अपनी यादों का
लौटता चला जाऊं
लम्हा-लम्हा पीछे
साल दर साल गुज़रते हुए
चप्पा-चप्पा नगरों का
पार करते हुए सड़कों के जालों को
खेत खलियानों की मटमैली, धूसर यादों को लेकर
पहुंच जाऊं उस चुलबुली लड़की के पास
सहला सकती है जो वक़्त को
हथेलियों की चोट से
आती है कई शक्लों में मेरे पास .....
कभी उस संबल के रूप में
जो संभलता ही नहीं
फिसलता ही जाता है
तो कभी 'कर्मनाशा की हार' की
विधवा के रूप में
जहां वो
दिखाई देती है सफ़ेद कपड़ों में लिपटी
तुलसी चौरे के पास
जहां रिमझिम बूंदों का स्पर्श
औरत होने के
हज़ारों सवालों के साथ
मन के सुलगते कोनों में
करता है अनगिनत चोट
दर्ज करता है
तुलसी चौरे के इर्द-गिर्द लिपटे कलावों का
लिजलिजापन
व्यवस्था के नारों में लिपटा मोह
आस्था और विश्वास के गठजोड़ तक जाता है
आसान नहीं है तोड़ पाना इन्हें
मगर तोड़नी तो होंगी ये हदें
हमें ही,
हमसे ही होगी शुरूआत,
पीछे से नहीं
आना होगा आगे से

कुछ बेड़ियों को तोड़ने की फ़िक्र में
बना रहे हैं हम
नई बेड़ियाँ अपने लिए
मन बहला रहे हैं
'यही क्या कम है '
कहकर गा रहे हैं
मगर वक़्त तो बीत रहा है
फिर भी
और ख़ाली हो रहे हैं मर्तबान
यादों के उसी तरह !

05/02/2011