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बुझ गया वो दीया / मनोज चौहान

{{KKRachna | रचनाकार=

                              
आज वह दीया,
बुझ गया है,
मगर कर गया है ,
आलोकित,
अनेक दीये,
जो करते रहेंगे,
सदैव ही संघर्ष,
अंधेरों से लड़ते हुए l

भूख और गरीबी,
जैसे शब्दों के,
सही मायने,
आत्मसात,
कर गया था वह ,
खिलौनों से खेलने,
की उम्र में ही l

एक ऐसा शख्स,
जिसने सपने तो देखे ,
मगर नींद में,
रहा ही नहीं,
ता उम्र ,
सफलता की असीम ,
बुलंदियों को ,
छूकर भी ,
वो जुड़ा रहा,
हमेशा जमीन से l

सुपथ पर चलकर ,
सुकर्म करते हुए वह ,
उठ गया इतना ऊँचा ,
कि पद ,सम्मान और
मजहब भी,
साबित हो गए ,
बौने,
उसकी शख्सियत,
के आगे l

धर्म के नाम पर ,
छोटी सोच लिए,
पथभ्रष्ट करने की
नाकाम कोशिशें,
भी करता रहा,
पड़ोसी मुल्क l

अपने इमान का ,
लोहा मनवाकर,
कलम का सिपाही,
अडिग, अचल ,
समर्पित रहा ,
मातृभूमि को ही l

ये सच है कि,
ऐसे<ref>पूर्व राष्ट्रपति एवं भारत रत्न दिवगंत डॉ. ऐपीजे अब्दुल कलाम को समर्पित रचना – कलाम साहब की जीवनी पर प्रकाशित पुस्तक में लिखा है कि उनको पाकिस्तान की ओर से इस्लाम और कुरान का हवाला देकर अपनी ओर मिलाने की हर संभव कोशिश की गई थी , इसीलिए रचना में पड़ोसी मुल्क का जिक्र आया है</ref> बिरले कम ही
होते हैं पैदा,
और विदा होकर भी ,
जिन्दा रहते हैं,
सदियों तलक,
आने वाली नस्लों,
की रूह में l

शब्दार्थ
<references/>