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बुढ़ापा / नरेश मेहन

बहुत दूर
छूट गया बचपन
न जाने कहां
खो गई जवानी
अतीत तो अब
लगता है कहानी।
सांसे सिमटने लगी हैं
इस दौर में
कोई न रहा अपना
न जाया
न काया और न माया।
अपने है तो बस
आंखो में सूखते अश्क
मुख में चंद दाँत
और अपचियाती आंत।
कभी रहे मजबूत कंधे
जिन पर
छोटे भाई-बहन
बेटा-बेटी झूलते थे
अब वे
खूद झूल गए हैं
और
पांव तो मानो
चलना ही भूल गए हैं।
शेष बची हैं
बूढ़े जिस्म में
एक हाथ में लाठी
और आँखों पर
शीशों का नम्बर बदलती ऐनक
अब तो
जैसे भी हो
जी लेते हैं
दर्द ही दर्द मिलते हैं
सह लेते हैं।
सब कुछ
हो गया नीरस
बस आया है हाथ
फीकी चाय का एक प्याला
जिसे पीना होता हैं
खासंते-खासंते
बलगम को हल्क में
धकेलते हुए।