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बुत में खुदा बोलेगा / गोबिन्द प्रसाद


रात भर की ख़ुमार-आलूद
तेरी पुरनूर आवाज़ का लम्स
आसमानों का तवाफ़ कर
जब ओस की बूँद बनकर मुझ पर झरा
तो चुप की एक नादीद-सी लकीर खिंचती चली गयी
रूह के शफ़्फ़ाफ़ काग़ज़ पर


होटों की कश्तियों पर दूर....
बदन की लहरों से लिपटी हुई आ रही है
ज़िन्दा जादू की तरह मौजे-गुल मेरी सिम्त
कि जिस जा से गुज़रता हूँ
आवाज़ के मुहीब नक़्श
बर्क़ की तरह रौशन होकर
सुब्हक के तारे में तब्दील होते जाते हैं
और यूँ लगता है कि आज फिर
किसी बुत में ख़ुदा बोलेगा....