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बुदबुदाहट / जगदीश जोशी / क्रान्ति कनाटे

गर्व से रुन्धे मौन की
मैंने कभी न की उपासना
घर ग़रीब होने के भ्रम में भी
गीत तो गाए हैं मैंने ।

धरती में समाते समय
सीता की आँखों में यूँ ही
ख़ाली झूलते झूले की डोरी जैसे
सागरपुत्रों की राख पखारने
वेगवती हो चली तो आई
पर
शंकर की जटाओं में अटकने पर
बलखाती भागीरथी की तरह
गीत तो गाए हैं मैंने ।

गीत तो गाए हैं मैंने
पर
तुम्हारे समुद्र के खारे उदर में
मेरा कण्ठ खुले, तब भी
तुम्हारी सतह पर तो है, बस, बुदबुदाहट !

मूल गुजराती से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे