देते रहते सन्देश सत्य का बार-बार,
वन-उपवन, तृण तरुवर, सरि-सर सागर अपार।
जो छन्द नियम का इनमें होता भासमान,
वह परम सत्य का ध्रुव प्रतीक विभ्राजमान।
जड़ जगत और चेतन आत्मा के क्षेत्र पृथक्,
दोनों क्षेत्रों के सत्य पृथक्, अभिधेय पृथक्।
जो चेतन आत्मा का निर्भ्रान्त सत्य निश्चित,
वह भिन्न सत्य से भौतिक जीवन के परिचित।
होता मानव की प्रज्ञा से इसका निर्णय,
है श्रेष्ठ बुद्धि से जिसका समाधान निश्चय।
साम्राज्य बुद्धि का सीमित इस भूमण्डल पर,
प्रज्ञा विहार करती नभमण्डल में उड़ कर।
आधार मानती बुद्धि तर्क को ही भ्रममय,
प्रज्ञा लेती अनुभूत भावना का आश्रय।
प्रज्ञा के अन्तरंग दर्शन से संगोपन,
होता जितना मन-वचन-कर्म का संयोजन।
करता उतना वामन मानव का अन्तर्मन,
वरणीय सत्य के ऊर्ध्वशिखर पर आरोहण।
मन और कर्म के दो कूलों के ही भीतर,
बहती रहती जीवन की गंगा कल-कल कर।
आत्मा को ही है ध्येय बनाना भूमापन,
हो प्रेय श्रेय का साध्य नहीं, केवल साधन।