देखा तुमने
हम डूबे हुए थे दुख के सागर में
हमारी पीड़ा से द्रवित हुए तुम
सुझाया मार्ग तुमने
दुखों के बन्धन से मुक्ति का,
जब बुझ जाती है यह ज्वाला
जीवन और मृत्यु की,
’निर्वाण’
हिंसा में दग्ध विश्व को भर दिया
अहिंसा की शीतलता से,
मार्ग के अन्धेरों को
कर सके पराजित हम
बनकर अपना दीपक स्वयं
तुमने दिया आशीष,
हे महामानव
तुम्हारी शिक्षाओं को कर दिया
पुस्तकों की कारा में क़ैद,
बना दिया तुम्हें ईश्वर
ढालकर पत्थर के शरीर में,
और तुम्हारी पूजा के पश्चात्
बहाते रहे नदियाँ रक्त की निर्बाध,
हिंसा के शोर में
फिर डूब गई है मानवता
और हम आत्मदीपक के बजाय
बदल गए बारूद के ढेर में,
पिता तुम आज एक बार फिर
हो गए हो प्रासंगिक
अपनी उन्हीं सन्ततियों के लिए
जो भूल चुकी थीं तुम्हें
अज्ञान के अन्धेरों से आवेष्टित,
फिर एक बार रखो तुम
अपनी शीतल हथेली
मनुष्यता के दहक रहे मस्तक पर,
करो एक बार फिर ’धर्म चक्र प्रवर्तन’
प्रशस्त करो मार्ग फिर
दुखों से मुक्ति का ।