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बुद्ध को निमन्त्रण / महाराज कृष्ण सन्तोषी

हे बुद्ध
आज वैशाख पूर्णिमा पर
मैं तुम्हें निमन्त्रण देता हूँ
मेरे साथ कश्मीर चलोगे

कश्मीर में
हमारा पुशतैनी घर है
जहाँ अब कोई नहीं रहता

द्वार पर
शायद आज भी दिख जाएँ
शारदा लिपि के कुछ अक्षर

कहते हैं
हमारे बुजुर्गों के पास
अनगिनत पाण्डुलिपियाँ थीं

कुछ आग ने जला डाली
कुछ पानी ने निगल ली
कुछ हवाओं के कहर से बिखर गईं
यहाँ-वहाँ सूखे पत्तों की तरह

बुद्ध
कश्मीर ठण्डी आबोहवा का देश है
चीवर से काम नहीं चलेगा

मै सिला लूँगा
तुम्हारे लिए नया फिरन
उसे पहन कर
तुम मेरे पुरखों जैसे दिखोगे

पुरखों से याद आया
अपना रक्तरँजित इतिहास

हम उसी इतिहास की सन्तानें हैं
आज लेकिन भूगोलहीन हैं

अब चाहे जहाँ भी रहें
हमारा सँकल्प
एक पेड़ की तरह आकार लेता है
और जीवनभर
हम इसी पेड़ के नीचे
सांसों से बनाते हैं अपना घर

इतिहास और घर के ही बारे में सोचते हुए
जब हम बेहद उदास हो जाते हैं
चुनते हैं अपने लिए
एक नया ईश्वर
और उस के चरणों में रख देते हैं
दुखों की गठरी
पर हम तुम्हारे सामने
वह गठरी नहीं खोलेंगे


बुद्ध
हम कश्मीर में साथ-साथ घूमेंगे
और उन सब को याद करेंगे
जिन्होंने फूलों की
मेरी उपत्यका को
बना दिया था
स्वर्गतुल्य

आज जब समय का चेहरा
और हवाओं का मिज़ाज
बदल चुका है

पहाड़ों से
उतर आए हैं
जलोद्धभव के वंशज
जो अपने मायावी बल से
घरों में छोड़ जाते हैं
अपनी छायाओं के गुप्तचर
जिन से डरकर
लोग अपनी आत्मा की रोशनी तक
छिपा लेते हैं

यहाँ तक कि
वितस्ता का जल भी काँप जाता है

बुद्ध
तुम साथ चलोगे
तो वितस्ता के पानी को
हम तनिक ढाढ़स देंगे
कहेंगे
समय चाहे जितना ख़राब हो
पानी कभी हार नहीं मानता

फिर चाहे वापस लौट जाना
कुशीनगर
सारनाथ
कहीं भी

मैं भी
एक बून्द वितस्ता
साथ लेकर लौट आऊँगा
और जीवन अपना
कहीं भी गुज़ार दूँगा
जहाँ नियति ले जाए ।