दिल और दिमाग के बीच
पड़ता है एक घना जंगल
जंगल के सीने को चीरती है
एक पथराई सड़क
दिल से होंठों तक उठती
किसी नाम की
गूँगी टेर की तरह।
न जाने
किस खूनी इच्छा ने
छू डाला है
पत्ता-पत्ता हरियाली को
डाल-डाल लिपट गये हैं
आग के लाल-लाल फूल
क्यों उगने लगा है
प्राणों में
यह सुलगा-सुलगा सा
जंगल
क्यों भूल जाना चाहता है मन
कि कहीं कोई वीतराग
शिव
खोलकर अपना तीसरा नेत्र
भस्म कर डालेंगे ये
रक्तिम-राग
जो फूट रहा है
डाल
डाल
टपक रहा है
अंग
अंग
अरे कह दो इसे
लौट जाये दबे पाँव
झड़ जाए
पँखुड़ी
पँखुड़ी
कहीं जंगल की आग
हरयाले अहसास निगल गई
तो रह जाएँगे
ठूँठ रिश्ते
काल__
स्याह_
हर पल धुँआते।
1984