ठाकुर साहेब, बहादुर कितने हो ?
ऐसा समझो, ग़रीब और कमज़ोर के तो बैरी पड़े हैं !
(एक राजस्थानी कहावत)
(२)
घर वही ढहा सकता
जिसका कोई घर नहीं
जैसे युवावस्था में घर से भागा हुआ कोई भिक्षुक !
(3)
बुलडोजर तो तुम्हारे घर पर भी चल सकता है
या तुम्हारा घर लोहे का बना हुआ है ?
(४)
उन्होंने मन्दिर तोड़ डाले
तुम मस्जिदों को ढहा दो
नफ़रतों और
बुलडोजर का कोई धर्म नहीं होता !
(५)
तुम्हारे बुलडोजर से
लाल क़िला नहीं ढह सकता
नहीं ढह सकता ताजमहल
गोरख-धाम नहीं ढह सकता
तुम काशी विश्वनाथ मन्दिर को नहीं ढहा सकते
जामा मस्जिद से टकराकर तुम्हारे बुलडोजर टूट जाएँगे
तुम्हारा बुलडोजर सिर्फ़ ग़रीबों को तबाह कर सकता है !
(६)
कबीर के सुन्न-महल को कैसे ढहाओगे
वहाँ तक तो तुम्हारी रसाई तक नहीं है, मूर्खों !
(७)
ढहाकर ही तुम सत्ता में आए हो
इसलिए तुम ढहा रहे हो
तुमने उस मस्जिद को ढहा दिया
जिसमें काशी के ब्राह्मणों के आक्रमण से आहत तुलसीदास ने पनाह ली थी
जिसमें रामचरितमानस के कई प्रसंग लिखे गए !
(८)
इसमें अब कोई सन्देह नहीं कि
तुम सारे लोग एक दिन
कुचलकर मारे जाओगे !
(९)
पुण्य ही नहीं
पाप भी फलते हैं
क्या किया जाए
यह भयानक मृत्यु तुमने ख़ुद चुनी है !
(१०)
मैं बुलडोजर से कुचलते हुए
तुम्हें देखना चाहता हूँ !
(११)
आमीन/तथास्तु !