Last modified on 1 मई 2022, at 16:16

बुलडोज़र पर एक निबन्ध / महेश वर्मा

जैसे वहाँ कुछ था ही नहीं । बुलडोज़र जगहों को समतल करता है और धीरे-धीरे लोग उन लोगों और चीज़ों को भूल जाते हैं जो वहाँ थीं । वहाँ रहने वाले नागरिक अब कहाँ होंगे ? हम सोचते रहना चाहते हैं कि बीच में आ जाता है विज्ञापन ।

माँ थककर, बच्ची थककर, बाप थककर सोए हैं । तीनों गोया एक ही सपना देखते हैं — बुलडोज़र कच्ची दीवारों को गिरा रहा है, बुलडोज़र प्लास्टिक लकड़ी और धातु की बनी चीज़ों को निराकार में बदल रहा है । तीनों सोचते हैं कि यह एक सपना है । वे सोकर उठेंगे, पानी पीएँगे और बाहर से घण्टी बजाता गुज़र जाएगा कुल्फ़ी बेचने वाला ।

हमारे क़स्बे में लोग आज भी इस घटना पर हंसते हैं कि कैसे शिकारी चा नहा रहे थे। स्नानघर से बाहर आए तो उन्हें थोड़ी अधिक धूप महसूस हुई, सर उठा कर देखा तो घर था ही नहीं । उनके नहाने के बीच ही एनक्रोचमेण्ट वाले आए थे और मिनटों में घर उजाड़कर आगे बढ़ गए । शिकारी चा चीख़ते रहे । फिर उनका चीख़ना रोने में बदला और फिर वे चुपचाप मलबे पर बैठ गए ।

लोग भकुवाकर उनके आसमान की ओर देखने की नक़ल करते हैं कि पहले वहाँ छत थी, अब दूर आकाश दिखाई देता था । लोग हंसते हैं और पीछे गूँजती है शिकारी चा की चुप्पी ।

बुलडोज़र के ड्राइवर उदास घर लौटते हैं। उनके कानों में गूँजती रहती हैं रोने, गाली देने, चीख़ने और हंसने की आवाज़ें ।