Last modified on 31 दिसम्बर 2011, at 01:15

बुलावा / मख़्मूर सईदी

ज़रा ठहरो ! किधर हम जा रहे हैं
उधर उस चारदीवारी के पीछे
वो बूढ़ा गोरकन चिल्ला रहा है :

‘इधर आओ ! क़दम जल्दी बढ़ाओ
यहाँ इस चारदीवारी के अंदर
जनम दिन से तुम्हारी मुंतज़िर हैं
वो क़ब्रें, जिन की पेशानी प’ अब तक
किसी के नाम का कत्बा नहीं है