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बूँद-बूँद बरसो / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

बूँद-बूँद बरसो
मत धार-धार बरसो

करते हो
यूँ तो तुम
बारिश कितनी सारी
सागर से
मिल जुलकर
हो जाती सब खारी

जितना सोखे धरती
उतना ही बरसो
पर
कभी-कभी मत बरसो
बार-बार बरसो

गागर है
जीवन की
बूँद-बूँद से भरती
बरसें गर धाराएँ
टूट-फूट कर बहती

जब तक मन करता हो
तब तक बरसो लेकिन
ढेर-ढेर मत बरसो
सार-सार बरसो