देह साँवली पहने चकमक बूँद पसीने की
परब तिहारों पर भी
तन पर वही पुरानी साड़ी ।
जंगल-झरने पेड़-पहाड़ों
पर लगती है भारी ।
आधी झुकती डालोंवाली कली नगीने की ।
साँझों में भींगेंगी आँखें
टपके महुवे कच्चे
बाँहों पर ताबीज लपेटे
हँसी दबाए बच्चे ।
गोबर माटी सने हाथों में भाषा जीने की ।
बिना बात जो कभी न हँसती
कभी नहीं रोती है ।
आग पेट की वह केवल
आँख में बोती है ।
लंबी-चौड़ी दुनिया की पहचान उसी ने की ।