बूढ़ा पहाड़ी घर / कविता भट्ट

तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर,
कंक्रीट-अरण्यों से चले आओ निकलकर।
माना तुम्हारे आस-पास होंगें आकाशचुम्बी भवन,
परन्तु क्या ये घरौंदा नहीं अब तुम्हें नहीं स्मरण?
खेले-कूदे जिसकी गोदी में, धूल-मिट्टी से सन
जहाँ तुमने बिताया, अपना प्यारा-नन्हा सा बचपन।
तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर,
कंक्रीट-अरण्यों से चले आओ निकलकर।
तुम्हारे पिता को मैं अतिशय था प्यारा,
उन्होंने उम्र भर मेरी छत-आँगन को सँवारा।
चार पत्थर चिने थे, लगा मिट्टी और कंकर,
लीपा था मेरी चार दीवारों पर मिट्टी-गोबर।
उन्होंने तराशे थे जो चौखट और लकड़ी के दर,
लगी उनमें दीमक हुए जीर्ण-शीर्ण और जर्जर।
तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर,
कंक्रीट-अरण्यों से चले आओ निकलकर।
चार पौधे लगाए थे जो पसीना बहाकर,
सिर्फ़ वे ही खड़े हैं मुझ बूढ़े के पास बूढ़े वृक्ष बनकर।
जो संदूक रखे थे मेरी छत के नीचे ढककर,
जंग खा गए वो पठालि़यों से पानी टपककर।
उसी में रखी थी तुम्हारे बचपन की स्मृतियाँ सँजोकर,
धगुलियाँ, हँसुल़ी, कपड़े तुम्हारी माँ ने सँभालकर।
तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर,
कंक्रीट-अरण्यों से चले आओ निकलकर।
थी रसोई, चूल्हा बनाया था, माँ ने लगा मिट्टी-गोबर,
मुंगरी-कोदे की रोटी बनाई थी करारी सेंककर।
मेरी स्मृतियों में कर रहा है विचरण,
तुम्हारा ठुमकना, रोटी का टुकड़ा हाथों में लेकर।
काल-परिवर्तन का मुझे आभास न था तब,
तुम्हें ले जाएगा, यह रोटी का टुकड़ा मीलों दूर अब।
और खो जाएँगी तुम्हारी अठखेलियाँ सिमटकर,
रह जाओगे तुम कंक्रीट के भवनों में खोकर।
तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर,
कंक्रीट-अरण्यों से चले आओ निकलकर।
तुम्हें तो मैं विस्मरित हो चुका हूँ,
किंतु तुम्हारी प्रतीक्षा में मैं बूढ़ा घर खड़ा हूँ।
अभी भी मैं हर घड़ी-पल यही सोचता हूँ,
अभी भी मैं रोता हूँ और समय को कोसता हूँ।
क्या अब मैं मात्र भूखापन ही परोस सकता हूँ?
या वह रोटी का टुकड़ा तुम्हें मैं पुनः दे सकता हूँ?
कहीं न उलझ जाना इन प्रश्नों में खोकर,
अब भी रह सकते हैं हम सहजीवी बनकर।
तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर,
कंक्रीट-अरण्यों से चले आओ निकलकर।
तुमको मैं दूँगा बिना मोल आश्रय-प्रेम जी भर,
और तुम मुझको देना वही बचपन का आभास भर।
अपनी संतानों के बचपन में जाना ढल,
और दे देना मुझे बचपन का वह प्रेम निश्छल।
आ सकोगे मुझ बूढे़ का मर्मस्पर्शी निमंत्रण पाकर?
माता-पिता की अंतिम इच्छाओं को सम्मान देकर।
निर्णय तुम्हारा है़...........आमंत्रण मेरा है!
तुम्हारी प्रतीक्षा में मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर,
कंक्रीट-अरण्यों से चले आओ निकलकर।

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