Last modified on 20 फ़रवरी 2009, at 23:05

बूढ़ा साल / केशव

झुर्रियों में
काँपने लगी हैं परछाइयाँ
सूख गया है जूते का तेल
कंधों पर तंबू लिये
बैठ रहा
पलक झपकते गुज़र गयी
वक्त की रेल

किसको दी तलवार
किसको खाली म्यान
मृत्यु पर की कितनी
शोकसभायें
और जन्म पर गाये मंगलगान

काँटों-से कोलाहल में
कितना दिया
कितना लिया
अब कुछ याद नहीं

हाँ
भीड़ में खुद को
पलभर में लापता होते देखा
आवाज़ के जादूगर को भी
बिना लाठी
अंधेरे में उतरते देखा
अगारों की रोशनी में
अपने ही ज़ख्म छीलता
नारों की तलवार-सी धार पर
लेटा हुजूम
इश्तहारों में उगता सूरज
पत्थरों से भी निकलता संगीत
देखा यहाँ
भूख के तवे पर
देशप्रेम की रोटी पकते
झूठ के पार्श्व में बैठ
सच को
कंकाल में बदलते

अब तक जो लिखा है
बंधे हुए हाथों ने सुनहरी कलम से
बंद कमरों में
पथरा गया है
मेरी पुतिलयों में
बाकी इतिहास लिखेंगे
मेरे अनुगामी
क्या होगा उसमें
अभी देख रहा हूँ
भविष्य की चिता की आग
सेंक रहा हूँ