बूढ़ा होता मन / मनोज श्रीवास्तव

बूढा होता मन

बूढा होता है
तन ही नहीं
मन भी

जीवन के धूप-छांव
कोशिकाओं पर लिखते हैं
उम्र की इबारतें

किन्तु, ज्ञेय नहीं होती
अकोशकीय मन की आयु

तन की वृद्धोन्मुख कोशिकाएं
हौले-हौले मृत्युनाद करती हैं,
शोकातुर होते हैं अपने प्रियजन
जब मृत्युदेवी झुर्रियाँ सहलाती हैं

पर, शोचनीय नहीं हैं
मन की झुर्रियाँ,
ये ही हैं गर्भस्थल
कितने बुद्ध, ईसा और गाँधी के

बड़ा फर्क है
तन और मन के बुढापे में

मन का बुढापा तन से नहीं आता
कालचक्र से नहीं आता
विस्थापन और थकान से भी नहीं आता,
आता है तो सिर्फ
दांतेदार अनुभव-चक्रों में
सतत-अनवरत पिसकर.

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