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बूढ़े पिता का सन्ताप / नंद भारद्वाज

एक अनजान शहर में
उदास बीबी और अबोध बच्चों के साथ
बिताते हुए ये ये एकाकी दिन
मुझे हरवक़्त कुरेदता रहता है
उनका वह भीतरी संताप :

पीढ़ी-दर-पीढ़ी
एक भरे-पूरे कुनबे का
एक-एक कर बिखरते जाना,
बरसों बाद
ब्याह-सगाई-जनम-मरण के अवसरों पर
मन-रीते मिलना -
     रीसने-रोने और परस्पर कोसने के
                 अनवरत अभ्यास में !

फिर उसी रीत में
बिखर जाना
दुलारों का बीज की मानिन्द
और असहाय पिता का
रात-रात भर सो नहीं पाना -

सीने में बजती बलगम
और आँतों में अटकी साँस को
सम्हाले रखने का
       जी-तोड़ जतन करना -

धड़कते हुए कलेजे में
सँजोए रखना
एक अदद कुँआरी बेटी का अवसाद
और गुज़ारे की खोज में
परदेस गये बेटों का
बेचैन बैठे इन्तज़ार करना !

जब से सुना है कि
ऊँची कमाई की आस में
लोग भेज दिया करते हैं
अपने जवान होते बेटों को
           सात समन्दर पार

जो कभी पलट कर लौट नहीं पाते
               अपनों के बीच -

फिर उसी संताप में
डूब जाते हैं
हम बेबस सपूतों के
बूढ़े नेक और नरमदिल पिता !