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बूढ़े हो गए / महेश सन्तोषी

हम और तुम
अब दोनों बूढ़े हो गये,
पर तुम पर रची एक भी
कविता बूढ़ी नहीं हुई!

शब्द समय को बाँध तो लेते हैं
पर खुद कभी समय से बँधकर नहीं रहते,
हारी-थकी जिन्दगियाँ बीत ही जाती हैं
पीड़ाएँ सहते-सहते,
स्थिर होकर रह जाता है
जब कोई दर्द
किसी का दुखता आहत अतीत
शब्द ही फिर उसे, बार-बार जीते हैं,
कोई नहीं जीता फिर कल फिर से
स्थायी होकर रह गये
एक वेदना, एक अभाव
अनब्याहे प्यार की व्यथा
वैसी की वैसी बनी रही,
हम और तुम
अब दोनों बूढ़े हो गये!

दो साँसों में जो बस जाए
जो प्राणों में बोया जाए
वह प्यार होता है,
एक ओस सींचती रहती है मन,
प्यार पल-पल पल्लवित हरसिंगार होता है,
बड़ी ताज़गी है इन अक्षरों में
रचे कई रंगों के गुलाबों में,
जो आजीवन सूखे ना, मुरझाये ना
वह सिर्फ प्यार का गुलाब होता है,
शायद हमारे हिस्से का
समय अब पूरा हुआ,
पर कुछ ऐसी दूरियाँ रहीं
कि ज़िन्द़गी अधूरी रही,
हम और तुम
अब दोनों बूढ़े हो गये!