अकुंरित तो हो जाता है
एक बीज
उष्ण धरा पर भी
हल्की नमी की
छुहन मात्र से ही
बेशक रहता है वर्षों तक
कुपोषित पौधा बनकर।
रहकर क्षुधित
झेलता है मार
क्रूर मौसम की
विपरीत परिस्थितियों में भी
निज अस्तित्व बचाने को
अड़ा रहता है निरंतर।
अभिलाषा है मात्र
बनना एक उन्नत वृक्ष
देना चाहता है फैलाव
अपनी कोमल टहनियों को
बन कर अजस्त्र स्त्रोत
औषधि,फल व छाया का
मिटाना चाहता है थकान
हर पथिक की।
चाहता है महसूस करना
उस आत्मीय सुख को
जब कलरव करते
पखेरू
नीड़ों का निर्माण कर
इठलायेंगे
उसकी बलिष्ठ भुजाओं पर।
सदैव संघर्षरत रहकर
और श्रमशील होकर
संबल पाकर
सालों के अथाह सयंम
एवं जिजीविषा से
प्रवेश कर जाता है एक दिन
वृक्ष बनने की
प्रक्रिया में।
और अंततः हो जाता है
भरा पूरा बृक्ष
सेवा भाव से लबालब!