मैं आ गया था किसी बीहड़ वन में
किसी निर्जन घाटी में चल रहा था
अनन्त मरूस्थल में तप रहा था
और बरसों से परिचित शहर की
सड़कों पर खो रहा था
अपने ही आपको ढुँढ़ने की कोशिश में
ऐसी गहन निराशा में
ऐसी अतल उदासी में
दिखा मुझको
ये तुम्हारा जगमगाता हुआ चेहरा
जिसे देखने के बाद
सब कुछ कितना बेमानी हो गया।
सदियों से मेरे साथ
चलती आईं मेरी असफलताएं
अंधकार के वर्तुल सी मेरी गहन उदासी
बार-बार जुड़ते और टूटकर बिखरते मेरे स्वप्न
साहस की सारी आभा लीलतीं
मेरी सुबहें, मेरी शामें
अब क्या मतलब है इन सबका……
ऐसे आई हो तुम
जैसे सागर की अनन्त लहरों पर सवार
तटों तक पहुँचती है हवा
जैसे गहन वन में चलते-चलते
दिख जाए कोई ताल
सदियों से सूखे दरख्त पर
आ जायें फिर से पत्ते
पतझर से ऊबे पलाश में
जैसे आता है वसंत
फूल बनकर
ऐसे आई हो तुम
मेरे जीवन में
बेटी बनकर
आओ तुम्हारा स्वागत है।
रचनाकाल : 2009, खुशी के पहले जन्मदिन पर