बेटी का कमरा / अर्चना लार्क

एक दिन नहीं बचता बेटियों का कमरा
बहू के कमरे में चक्कर लगातीं
सवालिया शिकन को नजरंदाज़ कर
भरसक खिलखिलाती हैं
उनके कमरे उनके नहीं रह जाते

कमरे का कोना देख याद आता है
आँख-मिचौनी का वह खेल
वहीं आलमारी में रखी वह तस्वीर
जिससे माँ ने कभी डराया था

सहेली को लँगड़ी फँसाकर गिरा देने पर
बड़ी देर तक घूरती रही थी वह तस्वीर

बाबा की परछाईं कोने में रह गई है
माँ के बग़ल में सोने की लड़ाई
आज भी कमरे में खनकती है
माँ के पेट पर
ममन्ना लिखना
और फूँक मारना

माँ ने मान ही लिया है
अब किसी कोने में हो जाएगा
उसका गुज़ारा
तो बेटियों का क्या है

ससुराल में
कि हो उनका
कोई कमरा ।

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