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बेबसी की एक नज़्म / परवीन शाकिर

क्या उस पर मेरा बस है
वो पेड़ घना
लेकिन किसी और के आँगन का
क्या फूल मेरे
क्या फल मेरे
साया तक छूने से पहले
दुनिया की हर ऊँगली मुझ पर उठ जायेगी
वो छत किसी और के घर की
बारिश हो कि धूप का मौसम
मेरे इक-इक दिन के दुपट्टे
आसूँ में रंगे
आहों में सुखाये जाएँगे
तहखाना-ए-गम के अन्दर
सब जानती हूँ
लेकिन फिर भी
वो हाथ किसी के हाथ में जब भी देखती हूँ
इक पेड़ की शाखों पर
बिजली सी लपकती है
इक छोटे से घर की
छत बैठने लगती है