निपट अकेले किसी इशारे पर जैसे, चलते ही जाते
मैंने देखा, ठीक-ठीक चलती हैं ट्रामें बसें और फिर
छोड़ रास्ते, पा लेती हैं वे भी गहरी नींद रात की ।
गैस-बत्तियाँ जलती सारी रात ठीक से सबकी ख़ातिर ।
बिना भूल के — घर, बरामदे, छतें, खिड़कियाँ और नामपट —
सब सोते हैं ; निपट अकेले चलते-चलते, चुप रास्तों पर,
मैंने जानी रोम-रोम में हृदय कथा इन सबकी गहरी :
तब थी कितनी रात — अनेकों तारे ऊपर मनूमेण्ट के,
निर्जनता में, घिरा इन्हीं से लगा सोचने इससे अधिक
सहज सम्भव कुछ और कहीं क्या : तारों मीनारों
से भरा हुआ कोलकाता !
झुक जाती हैं आँखें — जलती हुई देखती चुप्पी में
सिगरेट — हवा में धूल, अनेक तिनके बिखरे ;
करता आँखें बन्द, सरकता एक ओर मैं — ढेर-ढेर सूखे
पत्ते झरकर पेड़ों से उड़े दूर तक — इसी तरह
चुपचाप अकेले बेबिलोन में रात-रात भर
मैं भटका हूँ — नहीं जानता हूँ आख़िर क्यों,
आज हज़ारों वर्ष बाद भी ।
(यह कविता 'बनलता सेन' संग्रह से)