मैंने बदली से पूछा:
“तू भला क्यूँ रोती है?
ये कीमती गुहर,
क्यूँ इस तरह से खोती है?
यहाँ बरसात
बेमौसम ये कैसी होती है?”
वो बोली:
“दास्ताँ मेरी भी तेरे जैसी है !
बताऊँ क्या कि मुझपे
बीत रही कैसी है !
नमी जैसी तेरी,
मेरी भी ठीक वैसी है !”
उसी फ़ुर्क़त के सदमे,
दोनों सह रहे हैं यहाँ !
औ’ ग़मगु़सार हमारे,
जुटे हैं दोनों वहाँ,
तेरा दिलदार मेरे चाँद को है छेड रहा !
जले जो दिल, तो ताप से न बच सके है कोई !
यही है राज़, बराबर पिघलती जाती हूँ !”
और फिर खिलखिला के हँस दी,
और कही मुझसे:
“धरा से
और गगन
से दूर
बसाएँगे जहाँ !”
बात नादान सी बदली की,
सोच में डुबो गई...
लगा, ये पगली
जो बदली
है हू-ब-हू
मुझ सी...
ठहरती, उडती, बरसती है,
फिर भी हँसती है !
कभी तो रोके उसे कोई,
और सवाल करे...
कि अपनी हस्ती
मिटा कर तू
कैसे हँसती है?
15.06.93