कहीं नहीं, कहीं नहीं वह जमीन
जहां रोप देते हम अपने सुगबुगाते सपनों को
तय कर लिया था तुमने
हर उस जमीन को उखाड़ना
जहां हम पहुंच सकते थे।
संतुष्ट हो तुम कि तुमने
एक विषैली हवा छोड़ दी थी
और हमारे चारों ओर
अव्यवस्थित रिश्तों का जंगल बनता चला गया।
लेकिन तुम खुश थे कि तुम और तुम और तुम तो
सब एक ही हो-
पूरी तरह संगठित, सुरक्षित और व्यवस्थित।
तुम्हारा अट्टहास हमारे इर्द-गिर्द हर वक्त
गूंजता रहा है
और हम जिंदगी के न जाने कितने पड़ावों
पर
तुम्हारे अट्टहास की प्रतिक्रिया में
अपनी उम्मीदों की पोटलियां
फिर-फिर टटोल, सहेज लेते हैं
फिर आसपास के चेहरों में तुम्हारी
टोह लेते हैं
और सहम जाते हैं।
हालात के ऐसे चक्रवात तुमने चलाए
कि हमारे लिए सब दिन बेमौसम हो गए।
हम तुम्हारी प्रचारित गोष्ठियों के
उत्तेजक विषय बनते रहे
और किसी उच्छिष्ट की तरह,
तुम्हारी ऐश-ट्रे के
किसी अधबुझे सिगरेट की तरह
सुलगते रहे,
तुम हमारी तकलीफों को भुनाते रहे
और अपनी पीढ़ियों का सुख जुटाते रहे।
हम अपने सपनों की हर बूंद
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
एक क्षीण होती विरासत की तरह ढोते रहे
एक उर्वरा जमीन का टुकड़ा तलाशते रहे।
मगर तुम (फिर भी)
तिलमिलाते रहे
(शायद अपनी उपलब्धियों की कमी पर नहीं)
इन ऊबभरे रास्तों पर
हमारे अटूट सफर को देखकर...
न जाने क्यों...?