Last modified on 11 जनवरी 2015, at 12:44

बे-आवाज़ चीखें / विजेन्द्र

मुझे पता है
तुम जाग चुके हो सहस्त्र फण, सहस्त्र भुज
कारवासों के भारी-भारी पत्थर के भीतर
तुम्हारी धड़कनें गूँजती हैं
तुम्हारा मुँह बंद कर दिया गया है
पर आँखे देखती हैं
कान सुनते है
हाथ छुते हैं
चीजो को बदलना नये स्थापत्य में
नरभक्षकों के भूखे इरादों को तुम समझो
मनुष्य की महान कृतियों का विनाश करती
बमों की गर्जानाएँ दीवारों पर गोलियों के निशान
ध्वस्त हुए घर
उजाडे़ गये खेत-खलियान
चिथड़े-चिथड़े
दुखी जन ज्वालाओं को पचाते
चुप हैं
खंडहर होती भव्य इमारतें सारहीन।
सुलगते अंगारों को छिपाये
वे अपने परिजनो के षव
उठा रहे हैं
देखो.....खून गिरा है अभी-अभी
आदमी की फूटी कनपटी से
देखो.....अभी उनके माथे का पसीना
सूखा नहीं है
खून गिर रहा है
काश! एटमी करार के उन्माद में डूबा मैं
चर्चों के ढहाने की पीड़ा सुना पाता
सुनो ......उनकी ससूनी आँखो की
बे-आवाज़ चीखें
चट्टानों को तोड़कर उगने वाला कल्ला
मुझे वो आँखे भी दो
वो मान, वो छुअन
जो इस क्रूर काल की रगों में
धँस सकूँ
वे शब्द वो वाणी वे कान
जो रोयों की जड़ों को समझें
काशौ को मैं संसार की
शक्ल दे सकूँ
तुमको लौ की आभा
दोनों का फ़र्क मिटाने के लिए
मैं तुम्हारे जुतते खेत
और दाँतदार घूमते पहियों के पास आऊँगा।

2009