बैठी थी सखिन सँग,पिय को गवन सुन्यौ ,
सुख के समूह में बियोग आगि भरकी.
गंग कहै त्रिविध सुगंध कै पवन बह्यो,
लागत ही ताके तन भई बिथा जर की.
प्यारी को परसि पौन गयो मानसर कहूँ ,
लागत ही औरे गति भई मानसर की.
जलचर चरे औ सेवार जरि छार भयो,
तल जरि गयो,पंक सूख्यो भूमि दर की.