मरूँ? क्लीव, कापुरुष कहाऊँ?
जीऊँ? अपनी ये दोनों ही आँखें खोले-
सब कुछ देखूँ-और कुछ भी कह न पाऊँ?
न मरूँ, न जीऊँ, ओठ को सीऊँ।
स्वाद ले-ले कर, घूँट-घूँट,
जीवन का यह काला-काला-सा प्रतिपल पीऊँ!
दोनों सिरे पर जलते सरकण्डे में बन्दी-
कीट-सा मौन मरण सहूँ?
पुरानी, गीली, गाँठ-गठीली रूई-सा मसक-मसक दहूँ?
हरे काचे घाव-सा रहूँ,
कहा?
किस तरह?
किस वन में?
कहाँ जाकर?
किस मुद्रा में बैठूँ?
सभी आसन व मुद्राएँ ग्रहण कर ली गई हैं-
ईसा, सुकरात, मीरा, गाँधी, रमण ऋषि व अरविन्द द्वारा!
तस्कर-युग के अधमरों-अधजलों के लिए-
बची-खुची रह गईहै रे क्या कहीं कोई मुद्रा?-
मुझे भी चाहिए रे, एक ‘मुद्रा’-
अपने लिए बिलकुल फिट!
1970