आओ बैठो पास कबीर ।
हम दोनों की एक लकीर ।
तुम अन्धियारा दूर भगाते,
हम गीतों की जोत जलाते,
दोनों साधे रहते मन में,
अपने आँसू — जग की पीर ।
तन माटी का, जगत काँच का,
फिर भी झगड़ा तीन – पाँच का,
मन जोगी तो, लगे एक से,
राख मलें या मलें अबीर ।
तुमने धूप चदरिया तानी,
हमने इन गीतों की बानी,
सूरज ओढ़ा दोनों ने ही,
हम राही तुम आलमगीर ।
मृगजल के सारे घर रीते,
कुछ तो होता, जो हम पीते,
हम दोनों की पीर एक सी,
देखो कभी कलेजा चीर ।