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बैल कोल्हू का बनता रहा है बशर / देवी नांगरानी

बैल कोल्हू का बनता रहा है बशर
बोझ बनती हुई ज़िन्दगी झेलकर

ज़िन्दगी की तरह बेवफा दर्द भी
ले चला है मुझे मौत के घाट पर

कुछ हैं मजबूरियाँ, कुछ हैं दुश्वारियाँ
मुशकिलों से भरी प्यार की है डगर

टूटते हैं कहीं दिल, कहीं आइने
घात से पत्थरों के रहो बाख़बर

निर्धनों के न कष्टों की बातें करो
कोई धनवान छोड़े कहाँ है कसर

कितने जन्मों से भटके हैं सहराओ में
अनबुझी प्यास ले आत्मा के अधर

काँच का टुकड़ा समझा जहाँ ने जिसे
था वो हीरा चढ़ा पारखी की नज़र

रोटी-पानी के 'देवी' जो लाले पड़ें
भूख को मारकर ज़हर पीता बशर