रोज़ शिराओं में
मालिक की
चुपके से घुल जाते हम।
एक बियर की
बोतल जैसे
टेबिल पर खुल जाते हम।
लहू चूसने वालों ने
कब पीर
किसी की बूझी है।
अपने हक़ के
लिए लाश भी
कहीं किसी से जूझी है।
घर दफ्तर में
रद्दी जैसे
बिना मोल तुल जाते हम।
राजा जी मोटी खाते हैं
हमको दाना
तिनका है।
उनका चलता सिक्का
जग में
ऊँचा रूतबा जिनका है।
उन को पार
उतरना हो तो
बन उनके पुल जाते हम।
नमक उन्हीं का
हड्डी अपनी
मर्ज़ी केवल उनकी है।
खाल हमारी
रुई की गठरी
जब चाहा तब धुनकी है।
चाबी वाले हुए खिलौन
कैसे हिल डुल पाते हम।