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बोध / रफ़ीक सूरज

जर्जर हो चुके बूढ़े की भाँति
अन्धेरे में पेड़ कैसे
पिलपिले लगने लगे हैं...

टहनियों पर, पत्तों-पत्तों पर
अन्धेरा जम चुका है
ऐसे समय आँखों का खुलना-बन्द होना तक निष्क्रिय !

मगर फिर भी इस घुप्प अन्धेरे में
किस टहनी पर किस पखेरू का
घोंसला है,

इसका बोध
ये पेड़ कैसे रखते हैं?

मराठी से हिन्दी में अनुवाद : भारतभूषण तिवारी