राग सारंग
बोलि लियौ बलरामहि जसुमति ।
लाल सुनौ हरि के गुन , काल्हिहि तैं लँगरई करत अति ॥
स्यामहि जान देहि मेरैं सँग, तू काहैं डर मानति ।
मैं अपने ढिग तैं नहिं टारौं, जियहिं प्रतीति न आनति ॥
हँसी महरि बल की बतियाँ सुनि, बलिहारी या मुख की ।
जाहु लिवाइ सूर के प्रभु कौं, कहति बीर के रुख की ॥
यशोदा जी ने बलराम को बुला लिया (और बोलीं-) `लाल! तुम इस श्याम के गुण तो सुनो, कल से ही यह अत्यन्त चपलता कर रहा है ।' (बलराम बोले-) `श्याम को मेरे साथ जाने दो, तुम भय क्यों करती हो । अपने मन में विश्वास क्यों नहीं करती - मैं अपने पास से इसे तनिक भी हटने नहीं दूँगा ।' व्रजरानी बलराम जी की बातें सुनकर हँस पड़ी (और बोलीं-)`इस मुख की बलिहारी, अच्छा इसे ले जाओ।' सूरदास जी कहते हैं कि इस प्रकार (मैया ने) भाई (श्रीकृष्ण) के मन की बात कह दी ।