ब्रज में हरि होरी मचाई / ब्रजभाषा

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

ब्रज में हरि होरी मचाई॥ टेक
इतते आवत कुँबरि राधिका, उतते कुँवर कन्हाई
खेलत फाग परस्पर हिलमिल, यह सुख बरनि न जाई
सु घर-घर बजत बधाई॥ ब्रज में.
बाजत ताल मृदंग झांझ ढप, मंजीरा और शहनाई
उड़ति अबीर कुमकुमा केसरि, रहत सदा ब्रज छाई।
मनो मघवा झरि लाई॥ ब्रज में.
राधाजू सैन दियौ सखियन को, झुण्ड झुण्ड जो धाई।
लपटि-लपटि गई श्यामसुन्दर सौं, बरबस पकरि लैआई॥
लाल जू को नाच नचाई॥ ब्रज में.
लीन्हों छीनि पीताम्बर मुरली, सिर सों चुनरि ओढ़ाई।
बेंदी भाल नैनन बिच काजर, नकबेसर पहिराई,
मनो नई नारि बनाई॥ ब्रज में.
फगुआ लिये बिनु जानि न देहों, करिहौ कौन उपाई।
लहौं काढ़ि कसरि सब दिन की, तुम चितचोर कन्हाई॥
बहुत दिन दधि मेरी खाई॥ ब्रज में.
सुसकत हौ मुख मोरि-मोरि तुम, कहाँ गयी चतुराई।
कहाँ गये वे सखा तुम्हारे, कहाँ जसोमति माई॥
तुम्हें किन लेति छुड़ाई॥ ब्रज में.
रास-बिलास करत वृन्दावन, ब्रज बनिता जदुराई।
राधे-श्याम जुगल जोरी पर, सूरदास बलि जाई,
प्रीत उर रहति समाई॥ ब्रज में.

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.