जैसे पंखे की ब्लेड काटती है अदृश्य को
अदृश्य के लहू में स्नान कर छूटता है देह का पसीना
ज़िन्दगी के और भी सब सुकून ठीक ऐसे ही भीगे हुए हैं अदृश्य के लहू में
सुस्ताने के लिए नहीं टिकी थी उसके पहले से ही झुके कन्धों पर
सुकून ढूँढ़ती थी मगर हथेलियों में गुम जाती थी
लकीरों के जंगल में फँसी हुई 'एलिस' थी
उसकी हमसफ़र थी पर मैं दर-ब-दर थी
सही बात है कि पहुँचने के लिए चलते रहना चाहिए
पाँव में छाले पड़ जाएँ पर चलते रहना चाहिए
स्वप्न घायल हो तब भी चलते रहना चाहिए
मुख्य सड़कों के साथ लहू की पगडण्डियाँ बन जाएँ तब भी चलते रहना चाहिए
कि इतनी दूर तो नहीं होती कोई भी जगह
जहाँ से लौट के आने की गुंजाइश न बचे
मैं चलने से न थकी न डरी कभी
वो तो आस्तीन के छींटे हैं कि पाँव बाँध देते हैं