परेशान न करें मित्रजन उसे
परेशान न करें सेवक ।
स्पष्ट था अंकित उसके मुख-मंडल पर
कि मेरा वह सर्वस्व, प्राणी नहीं था इस लोक का ।
भारी तूफ़ानों ने घेर रखा था उसका घर
दब रहे थे कंधे पंखों के बोझ से ।
झुलसे उत्साह और गाती विराटता में
मुक्त उड़ने दिया उसने अपनी आत्मा को ।
गिर पड़ो, गिर पड़ो, ओ भारी प्रतिमा !
उड़ने के अधिकार का पता चल गया है पंखों को
उत्तर मांगते होंठ जानते हैं
मर जाना भी कोई उत्तर नहीं ।
जी-भर पीता है वह समुद्र और सुबह,
गुर्राता है वह- कोई नहीं ज़रूरत मेरे लिए मरने के बाद
प्रार्थना करने की,
जीने के जो देता रहा आदेश
वही जुटाएगा रोटी खिलाने के लिए ।
रचनाकाल : 15 अगस्त 1921
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह