इक पटरी पर सर्दी में अपनी तक़दीर को रोए
दूजा जुल्फ़ों की छाँव में सुख की सेज पे सोए
राज सिंहासन पर इक बैठा और इक उसका दास
भए कबीर उदास ।
ऊँचे-ऊँचे ऐवानों में मूरख हुकम चलाएँ
क़दम-क़दम पर इस नगरी में पंडित धक्के खाएँ
धरती पर भगवान बने हैं धन है जिनके पास
भए कबीर उदास ।
गीत लिखाएँ, पैसे ना दें फिल्म नगर के लोग
उनके घर बाजे शहनाई, लेखक के घर सोग
गायक सुर में क्योंकर गाए, क्यों ना काटे घास
भए कबीर उदास ।
कल तक जो था हाल हमारा हाल वही हैं आज
‘जालिब’ अपने देस में सुख का काल वही है आज
फिर भी मोची गेट पे लीडर रोज़ करे बकवास
भए कबीर उदास ।