दी मैंने उसको भक्ति और वह काँप गई!
जब दिया अमित विश्वास, थकी-सी हाँफ गई?
क्या भार वहन के श्रम से ?—ना।
मन में यह भय, सच्चा भय था—
मैं क्षुद्रपात्र, खिलवाड़ बनूँगी अब कैसे औरों की?—
खिलवाड़ बनूँगी उच्छश्रृंखल, रस के लोभी भौरों की?
मैं गया पास विनयानत, वह हट दूर गई!
सर्वस्व दिया, तो कहा—’नहीं यह रीति नई!’