जब भी भेंटती किसी नारी को
मुझे लगता
दो भाग में एक भाग
तीन भाग से एक भाग
चार, पाँच, छह या सात भाग से एक भाग
पता नहीं कितने भाग में
स्वयं को बाँटती।
पता नहीं कौन सा भाग
खड़ा होता मेरे सामने!
केवल बाँटने नहीं
यों असंख्य प्रकार नारी
अपने को माँगती
कभी चटख जाती
कभी दहल जाती
टूटने से पहले
अचानक स्थित होती
कभी डहक उठती
कभी कच्चे मांस का स्वाद बन
किसी की कामना वृद्धि करती
कभी नदी-सी नाल चंचल हो
आगे बह जाती।
जब भी मैं भेंटती किसी नारी से
हिसाब-किताब करने लगती
इधर-उधर से टुकड़े चुगती, सारे सजाती
किसी में न मिलती संपूर्ण नारी।
हर बार कोई भग्नांश
मुझे विकल करता, परेशान
जिसे अंश का एक भाग
दूसरे भाग को खोजता जा रहा।