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भजन-3 / नज़ीर अकबराबादी

टुक लीप जमीं को पावों से और उल्टे गन्ने उसमें बो।
जो आख अखूले नीचे हों और नीचे की जड़ ऊपर हो।
रख बैल जुये के कांधे पर और पेट उलट कर कोल्हू को।
जो टपके रस की बूंद कोई उस रस से कान और मुंह को धो॥
गुरु चेला मिश्री कंद बने जब आन गुरू की खंडित हो।
ये उल्टे गुरू की बानी है जो उल्ट पढ़े सो पंडित हो।
मत गन्नों का गुन खेत उसे ये निरगुन खेती बाड़ी हैं।
जो इसको रस की ईख कहे वह रसिया निपट अनाड़ी है।
यह रस की रसिक लटारी है यह बिस की बूटी झाड़ी है।
जब उलटी इसको काढ़ी है तब इसका नाम उखाड़ी है॥ गुरू चेला.

ले पानी आतिश<ref>अग्नि</ref> फूंक जला ये भट्टी जो भड़काई है।
घी डाल उलट कर छन्नी में उस घी की यही कढ़ाई है।
घी सोख लिया जब मैदे ने फिर आगे घोट घुटाई है।
जब हलवा जल कर खाक हुआ फिर खासा<ref>योग्य, ज्ञानी</ref> तू हलवाई है॥ गुरू चेला.

जब हलवा तेरा सख्त हुआ फिर आगे और बखेड़े हैं।
जब खोया कहवे नुकती को फिर खाते लड्डु पेड़े हैं।
कुछ बरफी बालूशाही के कुछ खुरमों<ref>छुहारे</ref> के उलझेड़े हैं।
नित फेर पटे पर बेलन को खजलों के पर्त उखेड़े हैं॥ गुरू चेला.

जब पेठे का भी पेट फटा फिर काम पड़ेगा घेवर से।
सूराख पड़ेंगे छाती में और आन लगेंगे चक्कर से।
जब शीरा पानी राब हुआ और सावन भादों आ बरसे।
फिर तोड़ बताशे बाहर से, और फेर अंदर से अन्दर से॥ गुरू चेला.

जब सूख अंदर से सर्द हुए फिर और मिठाई गुप चुप है।
बिस अमृत बान इमरती के और हार गुलाबी चुप चुप हैं।
कुछ लुक लुक च्यूटी मक्खी की कुछ छायी छप्पी छुप छुप है।
अब गुप चुप भी चुप चाप हुई फिर आगे सौदा गुप चुप है॥ गुरू चेला.

जब गुप चुप मक्खी चाट गई फिर आगे शकराबाशा है।
वह शकरा सेर छटंकी है और बाशा तोला माशा है।
जब ओला घुलकर रूई हुआ फिर पत का तार तराशा<ref>काट-छांट कर बनाना</ref> है।
वह गाला बुढ़िया काता है और जवानों का तमाशा है॥ गुरू चेला.

जब पेड़े लड्डू टूट चुके फिर घेरा घेर ज़जेबी है।
साबूनी रेवड़ी तिलशकरी और बरफी रूह फरेबी<ref>आत्मा को धोखा देने वाली</ref> है।
क्या अकबरशाही बीरबली क्या कुत्बीखान रकेबी है।
क्या शक्कर पारे नुकुल चने सब तेरी फौज जलेबी है॥ गुरू चेला.

जब बुढ़िया भी वो कात चुकी और हुई गंडेली की टक्कर।
और महक इलाची दाने की फिर मूंगा के लड्डू की कर कर।
हो खाली बदन खि़लौने का गई दूध और शहद की नहरे भर।
दर मार उठा कर दोजख़<ref>नरक</ref> के धर भिस्त का पत्थर छाती पर॥ गुरू चेला.

अबदर भिस्त भी जिस दम ठंठ हुए फिर आगे निपुरन धोबन है।
हैं आरी दंदा मिंसरी के और फोंक गजक के सोहन हैं।
फिर तनक तनकती पर आई और फूंकू नर आहत मोहन है।
जब हलवा मग़ज़ी खुश्क हुआ फिर खासा हलवा सोहन है॥ गुरू चेला.

वह सोहन भी जब रीत चुका फिर मिक़राज़ी भी आवेगा।
वह नोक तिलों की कतरेगा और खील को काट गिरावेगा।
वह सेवा सेब नज़ीर आखि़र फिर गूंगे का गुड़ खावेगा।
फिर आगे बूर के लड्डू हैं जो खावेगा पछतावेगा।

शब्दार्थ
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