बात गुजरे ज़माने की है
कविता खोज लेती थी ख़ुद को
लोकगीतों में ,आल्हा ऊदल में ,
बिरहा की तानों में
मिलन की मल्हारों में
प्रेम में ,अनुराग में
कविता पीड़ित होकर
उपजा लेती थी ख़ुद को
आँसुओं में ,चीखों में ,
भय में, वितृष्णा में
अब जाने क्या हुआ !
बिला गई संवेदनाएँ
ठूँठ हो गए चहकते दरख़्त
खिलते ही कुम्हला गई मंजरियाँ
कोयल का कंठ अवरुद्ध हो गया
इंसानियत ने पहचान खो दी
बारूदी माहौल में
सहमी हुई कविता
आहत शब्दों का जखीरा लिए
भटक रही है
कहीं तो मिले ठौर