सरकारें, कमज़ोर नहीं हैं , कमज़ोरी की हवा हवा है ।
अर्र-गर्र के जोर-ज़ुर्म से उठी हुई हैं काफ़ी ऊपर । आचरणों की पाकसाफ़ हैं विहँस रहीं गीता छू - छू कर । टोपी धारे जन गण मन की
बानक भी क्या ख़ूब फ़बा है ।
पल-पल से रेवड़ी बटोरें पड़े हुए हैं खाते ख़ाली । नीति-न्याय का ढोंग न कोई जनता बजा रही है ताली । चीख़ों में लाँछन न लुच्चई
और न बड़बोला फ़तवा है ।
जात-पाँत का ऊँच-नीच का भेदभाव धरती से झाड़ें । चुपड़ कोढ़ पर खस के फाहे बू दाबें , बदबू न उघाड़ें । भड़वे हुए भदन्त इसी विधि
रोग पुराना , नई दवा है ।
अर्थतन्त्र के दमनचक्र को कसकर पकड़े , जमकर रोके । हितचिन्तन की मौज यही है अभी न इनको कोई टोके । राजधर्म के इस प्रमाद का
अपना ही औघड़ जलवा है ।
सरकारें, कमज़ोर नहीं हैं कमज़ोरी की हवा हवा है । </poem>