Last modified on 4 मार्च 2017, at 12:28

भय / अमरेन्द्र

खेती-बारी छोड़-छाड़ कर माधो है चपरासी
कपड़ा-लत्ता बदल गया है, चेहरा खिला-खिला है
पहले तो टोला लगता था, अब तो एक जिला है
बातें उसको खाद-बीज की अब लगती हैं बासी।

कल तक अपने खेत का खाता जी भर अघा-अघा कर
अब वेतन के चक्कर में खेतों को बेच रहा है
पहले तो कुछ अहा-अहा था, अब तो हहा-हहा है
भूल गया है अब तो रखना कुछ भी बचा-बचा कर।

बड़े बड़ों के आचारों में माधो रंगा हुआ है
जीवन जो सीधे चलता था, टेढ़ा बना लिया है
हंसमुखी नौका को अब तो बेड़ा बना लिया है
रेशम के कुत्र्ते-सा वह खूँटी पर टँगा हुआ है ।

बिके खेत पर कल-पुर्जों का खड़ा हुआ एक घर है
कई खेत उस घर में होंगे इसका ही अब डर है।