न जाने कौन सा चेहरा
तिरने लगा है आँखों में
मुझे देखकर व्यंग्य से
ये क्या कहने लगा है
शब्दों और पंक्तियों की उधेड-बुन
एक साथ
कई-कई भाषाएँ
संवेदनाओं की एक ही धारा को
परिभाषित करते
अलग-अलग विचार ।
आवाज़ आती है-
‘ दंभी-आइकोनोक्लास्ट
मेरी भोली भावनाओं को
सारी ज़िन्दगी
जूते की ठोकरों पर
उछालने वाले
निष्ठुर मनुष्य!
कौन से ज्ञान का खेल खेलकर
मिटाते फिरते थे
मेरी आस्था के
मेरी सूनी आँखों के भीतर
भीगे से कुछ छवि चिन्हों कों
भीषण हॅंसता है चेहरा वो-
‘ आह!
कैसे टूटे से आते हो नज़र
कटे से हाथ पैर सब ‘
आवाज़ चली जाती है ।
रोने को हो रहा है जी-
मैं किस सत्य को तलाशने को
कितने महान असत्य को नकारता रहा हूँ-
मैं उसे किस मुँह से
यह समझा सकता हूँ कि
पागल नहीं थे वो
नासमझ, ज़ाहिल और साइकोटिक
भी नहीं थे-
एक रामचरित रचने वाला
और दूसरा
रामराज के सपने बुनने वाला
कि जिनकी जुबान पर
वो राम
मरते वक़्त भी हिलका हुआ था।
सिरफिरी, चरित्रहीन और
उतनी बेठौर भी नहीं थीं
ब्रज की गोपियाँ वो-
जो अपनी सखी के
पिया की प्रतीक्षा में
उम्रभर कँवारी, बावरी-सी होकर
रात दिन
कंकड़-पत्थर, मिट्टी,रेत
नदीं किनारों के सीढ़ी-घाटों पे बैठकर
चाँद-सूरज, हवा और बादलों के साथ
फूल पत्तियों लताओं और भंवरों तक से
सिर्फ यही पूछा करतीं थीं-
कि कहाँ है ?
कहाँ है वो निर्मोही
बाँसुरी वाला
जो हमारी सखी राधा को
यॅूं विरह में तड़पता छोड़ गया है!
घिर रहें हैं प्रश्न
और जिनके खुदके खोजे माने
काँप रहा हूँ मैं उसे बताने में
कि कोई बहुत नाजुक-सी शै
टूट जाएगी
कहीं मेरे ही भीतर
अगर उसने भी स्वीकार कर लिए
मेरे खोजे वो अर्थ!
कैसे तड़प के फड़फड़ा उठूँगा मैं
जब मेरी ही हाँ में हाँ मिलाने को
वो कह उठेगी कि-
रामायण बस एक मिथोलोगिकल बुक है
पिछले जम़ाने की पूजा पद्धतियों और
मान्यताओं की
उस ज़माने के दो राजाओं के बीच के
एक फंतासी कॉनफलिक्ट का
वर्णन करने वाली
वाल्मीकी नाम के एक कन्स्यूमेट ऑथर का
एक मैगनम ऑपस !
कैसे समझाऊँगा उसे
कि ये गर झूठ और कल्पना भी है
तो भी कैसी बड़ी और महान है
कि जिससे आँखें या
एक पूरा का पूरा देश इस सृष्टि के मध्य से उभरकर
कायनाती-रुहानी दृश्यों को
परिपक्त नज़रो से देखना सीख सका है ।
पीढ़ी दर पीढ़ी हज़ारों सालों से
अनगिनत इंसानो की
मालूमी जुबानों से बहते रहे जो शब्द
यहाँ के उन सब
प्राणों के प्राण होकर गूँजे हैं !
सिद्धांतों के जिस यूटोपिया को मैं
बरसों से आँखों में सहेजे
उसके अस्तित्व को
साकार रुप में देखने को
दुनियॉं आलम के तमाम दर्शनो से जूझकर
मैं तर्क नोचता आया हूँ-
उसके वजूद के अपने आसपास
होने की ज़रा सी फुसफुसाहट से
मेरी रुह पर फफोले पड़ने लगे हैं ।
अपने खुदके ही घर में
जिसके संभावित अक्स को देखकर
मैं रोया-रोया सहम गया हूँ-
वो अगर
मेरी ज़ाहिल मॉं की तरह
पाँव मे आलता
माँग मे दूर तक सिंदूर भरे
पायल,बिछिया,चूड़ी-गहना लादे
साल में छत्तीस दफे आने वाली
चौथे-साते-अष्टमियों पर
गोबर पर चौक लगे आँगन में
कोई गुलाबी-सी साड़ी पहन
हाथ-जोड़कर
किसी सीता या सावित्री की
कोई घिसी-पिटी कहानी
कह-सुन नहीं रही होगी
तो मुझपे क्या बीत रही होगी
ये सोचता हॅूं मैं !
या फिर अगर
किसी मूर्ति या पोस्टर के आगे खड़ी वो
मेरे सब घरवालों के साथ
पूजा का थाल उठाकर
किसी बाज़ारू अगरबत्ती के
ख़ुशबू वाले धुएँ और
किसी भूली सी आरती के
शुभ शब्द कहकर मेरे मकान की चाहरदीवारों को
नहीं छू रही होगी
तो कितना
मरघट सा सन्नाटा
मेरे घर को दबोच चुका होगा-
मेरे मरहूम बाबा
जिनके प्राणों में भगवान यूँ बसे थे
कि मृत्यु से पूर्व की बीमारी में
लेटे-लेटे
बिजली चले जाने पर
ये कह उठते थे कि
‘ हे हनुमान जी
बिजली भेज दो ।’
या फिर मेरी वो दादी जो
मौत से एक दिन पहले
मूर्च्छा में बड़बड़ा रहीं थी
कि ‘ सिन्हासन आ रहा है
मेरे रामजी आ रहें हैं
मै उनसे बोलूँगी नहीं
मेरी उनसे बहुत लड़ाई है!‘
मेरे पिता
जिन्होनें जवानी से अब तक
न जाने कितने मंगलों-शानिचरों को
भूखे रहकर
शाम को याद से
सवा रुपयों का प्रसाद
मंदिर मे चढ़ाया है
अगर उस घर में
उसने
सिर ढाँपकर
सिर्फ दिखाने भर को ही
उस एक किताब के सोपान नहीं उलटे
तो किस किस के
भग्न हृदय को मैं
सहलाता-पुचकारता फिरूँगा!
मेरे अंदर का विद्वान
जैसे नन्हा सा शिशु बन
रोना चाह रहा है
माँ की गोद में सिर रख ।
काश ! कोई आके
मेरे अंदर के नास्तिक के
परखच्चे उड़ा दे ।
मैं किसी पगले, भोले,
अनपढ़, गँवार से हारना चाहता हूँ
क्योंकि
शायद
मेरा अस्तित्व
मेरे मन की निरंतरता का
बीज ही उस एक शब्द में है
जिसे मेरा दिमाग
झूठ कहता है ।