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भाई-भाई / आरती 'लोकेश'

भाई में छिपी छवि पिता की, सीख यही देती थी माई,
भाई-भाई का प्यार निराला, गूँज यही दी थी सुनाई।
अब राम-सा भाई कहाँ, कहाँ भरत-सा अनुयायी,
किस दिशि अब बलराम हैं, किस रूप में हैं कन्हाई।

सुख-दुख साथ चखे पले थे, एक रजाई, एक मलाई,
वही युगल अब झेल रहे हैं, सदियों की-सी कलुषाई।
युग बदला मन बदल गया, बदली संबंधों की गहराई,
अब उर्मिला-सा त्याग कहाँ, और सीता-जैसी भौजाई।

त्यागमूर्ति छोड़ यहाँ अब, अधिकार भाई का मारे भाई,
सहनशक्ति का छोड़ आश्रय, न्यायालय होती सुनवाई।
लोभ-प्रलोभ, छल-बल कपट, कुटिल मस्तिष्क है समाई,
आरोप-निरूप घृणित चालों से, जीत पाई कर जग-हँसाई।

ईश्वर! तेरे निर्मल जगत में, अंध रीत स्वार्थ ने चलाई,
भुला बचपन की मीठी यादें, ईर्ष्या-द्वेष बस रही दिखाई।
क्या लहू का रंग मिट जाता है, कष्टों की अग्नि भस्माई,
उपचार हेतु इक शरीर बहेगी, दूजे के रक्त की अरुणाई।