हर लड़की को जिसका कोई न कोई भाई था
बख़्शा गया था उसे एक नेमत की तरह
भाई बचपन के पूरे दिनों के लिए दी हुई किताब था
जिसे हर बहन ने पढ़ा था हर्फ़ दर हर्फ़
गड्ढे से ऊपर आने के लिए यह भाई ही था
जो बढ़ाता था हाथ बहन के कोमल हाथों की तरफ
अपनी ताकत का एक अंष संचारित करते
और तब लड़की सचमुच ऊपर आकर खिलखिला उठती
अंधेरे में साथ चलते हुए अचानक वह थाम लेता
उसकी कंपकंपाती हथेली और
चंद्रमा यह देखते हुए याद करता
परंपरा के अनंत पोषण की प्रक्रिया
राखी का दिन उन्होंने मिलकर रोज मनाया बचपन के दिनों तक
यह और बात है उन दिनों उनके कपड़ों में छेद होते,
बाल छितरे और अभाव के मारे जर्जर लम्हे
जिन्हें वे बाद में अकेले में याद करने के लिए इकट्ठा किए जाते
जीते जी जब विदा का दिन आ जाता तब
भैय्या ऽऽऽ आ ऽऽऽ आ ऽऽऽ कहते रूआंसी हो पड़ती लड़की और आगे बढ़ती
मगर इतने में पीछे खड़ी सासनुमा स्त्री कांधे पर हाथ रख देती और
भाई-बहन का गले मिलना पुनः स्थगित हो जाता
उस दृश्य के बाद जीवन के दृश्य से भाई की छवि धुंधली होने लगती और
बरस दर बरस वह एक धब्बे में तब्दील होते दीखता दूर जाते-जाते
अर्से बाद किसी रात पूरनमासी के दिन चांद की ओर उंगली दिखाते
अपने नन्हें-मुन्नों को करते हुए इषारा लड़की बताती
वोऽऽऽ वोऽऽऽ देखो! चंदामामा
और डबडबाई आंखों व रूंधे गले से कोशिश करके भी
गुनगुनाने से मजबूर हो जाती वह सनातन गीत:
...चंदामामा दूर के .....।