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भारतीय जीवन दर्शन / लालित्य ललित

मेहनत कश इंसान
रिक्शा चलाता है
कारोबार चलाता है
अफसर चलाता है क़लम
अधीनस्थ की सी.आर.
बिगाड़ता है
मूंछों पर ताव मारता है
ठेकेदार मज़दूरन पर लाइन
सेक्रेट्री पर बॉस फ़िदा है
पड़ोसी, पड़ोसन को निहारता
अपने छज्जे पर टिका है
यानी
एक साथ
समान धर्मों, चेतना संपन्न
सजीव अपनी-अपनी
युक्तियों से एक -
विशेष प्रभा मंडल को
आभायुक्त
तर्क संगत बनाने में लगे हैं
यानी कहीं भी कोई भी
ग़लत नहीं है
इसी का नाम है जिं़दगी
जो चली जा रही है
और कैसे इठलाती हुई बहे -
जा रही है नदी
कैसे मचलती हुई जा रही है
सवारियों से भरी नाव
सपनों के देश से लौट रहा -
वायुयान
‘मेट्रो’ में धड़कते दिलों से
पूछे कोई
दिल रहा नहीं भीतर
वह तो ‘अदृश्य’ हो कर
यहां वहां ‘सर्च’ कर
रहा है
शायद किसी का मासूम
दिल बलूट्रूथ पर हो
और वह ‘ओपन’ हो
हालत आज ऐसी हो
गई है
सब लगे हैं
अपने-अपने कार्य में ।
मुरर्गों में मांस नहीं
सपनों में आस नहीं
कोई प्रिय पास नहीं
कुछ ‘एकांत वासी’ ऐसे हैं
जो एकांत राग प्रिय हैं
और कुछ ऐसे
जो सजे-धजे
मॉल में टिके हैं
बेशक हो जेब खाली
क्या फ़र्क़ पड़ता है
छुट्टे सांड़-जैसे घूमते
ये मेरे भारतवासी
बाप की तनख़्वाह पर
टिके हैं
ये मेरे भारतवासी
कुछ यह दो तो
सर फोड़ दे
उधार मांगो आप अपना
तो आप को ये
ऐेसे आदेश देते
सर्वत्र मिल जायेंगे
जो तेरा है वो मेरा है
तू क्या लाया था
क्या ले जायेगा
वगै़रहा-वगै़रहा
यानी आप मांगो मत
अगर आ जाए कभी गु़स्सा
कह देंगे झट से
- ‘मर तो नहीं रहें,
दे देंगे आप को
आपके मरने से पहले’
आप सर पीट लेंगे
इससे ज़्यादा कुछ नहीं
और कर भी क्या कर सकते हैं
मैं मांगती हूं तो देते नहीं
और दो अपने जीजा को
ग़ुस्से में भुनभुनाती
पत्नी ने कहा
पति महाशय की हो गई बोलती -
बंद क्या करे बेचारा !
मेहनतकश इंसान और
कर भी क्या सकता है !
सर पीट ले इतना काफ़ी है
और क्या करेगा ?
आज़ादी के बाद से
भारतीय पुरुष
बेबस है
जो चल रहा है चलने को
बस इससे अधिक कुछ नहीं
अगर देखने हों
इस तरह के बेबस ढींठ
तो द़तरों के बाहर
उदास, लाचार
अपने-अपने झालों के
साथ मिल जायेंगे
बस की क़तार में
लगने को दिख जायेंगे ।