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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र / जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’

भारत की भूमि पर माता भारती का गृह,
कवि भारतेन्दु से बना सदा महान है।
दिल्ली दरबारे आम, खास में भी बात हुई,
'कालचक्र' काल का ललित संविधान है।
'हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका' है पत्रिका की रानी श्रेष्ठ,
'विद्यासुन्दरी' से सजा नाट्य-आसमान है।
'भारत की दुर्दशा' में कुछ भी न झूठ लिखे,
कूँचे ओर गलियों में रोता हिन्दुस्तान है॥

कवि भारतेन्दु! आप असमय अस्त हुए,
छायी चारों ओर घटा घनघोर काली है।
टूटती बिखरती चतुष्पदी है आज वह,
भारती का न्यास लग रहा सच खाली है।
कण कण तृण-तृण लगते उदास सभी,
भावना की वाटिका का वेदना ही माली है।
पहरे लगे हुए हैं सच पर झूठ के ही,
ठूँठ पे' सवार आज फूट मतवाली है॥

भाव पे' कुभाव का अजीब-सा प्रभाव आज,
छाया वैश्रवण पर मानो ज्यों सुमाली है।
जाति-पाति छुआ-छूत भेदभाव की विचित्र,
आधि-व्याधि अब्दियों से बनी हुई लाली है।
छिन्न-भिन्न हो गये हैं काव्य-प्रतिमान सभी,
सौतन कुलोचना चला रही दुनाली है।
संक्रमण-काल में विभक्त यह जन-मन,
देश बिना आपके ही लग रहा खाली है॥

भारतेन्दु! आप पुत्र माता भारती के धन्य,
फिर एक बार इस भारत में आइए।
विश्ववन्द्य भारती की वीणा के ललित स्वर,
हिन्दी महारानी को सुप्रीति से रिझाइए।
जगमोहन प्रताप प्रेमघन व्यास कृष्ण,
जैसे कृतिकार यहाँ अगणित लाइए।
छन्द के मनोहर सुमार्ग पर चलें कवि,
ऐसा अभियान यहाँ फिर से चलाइए॥