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भारत और वसन्त / रामचंद्र शुक्ल

साँचा:KKCatKavyaNatika

स्थान एक प्राचीन राजभवन का अवशेष; भारत निश्चेष्ट पड़ा हैं।

(झूमते हुए वसन्त का प्रवेश; पीछे पीछे एक आदमी फूल से भरी डाली और बहुत से पक्षी लिए हुए।)

भारत

कौन आस धरि, हे वसन्त, अब आजु फेरि तुम आए।
हरे हरे दु्रमदल बहु लीने, सुमन भार लदवाए?
केतिक लिए पपीहा कोयल बने बहेलिया खाते।
मन्द मन्द पग धरत मही पर मानौ करत तमासे।।

अच्छा फिर दो एक पकड़ दो आज हमारे नेरे।
मेरे उल्लू चमगीदड़ और पिक चातक से तेरे।।

(विक्षिप्तता सूचक मंदहास पूर्वक)

देखि तुमारो वेष रँगीलो रुकै हँसी नहिं मेरी।
मारी गई अवसि मति, भैया मेरी अथवा तेरी।।

हाँफत हौ जब बाय बाय मुँह देती महक बताए।
आवत हौ भर पेट मलय के कोमल काठ चबाए।।

सीधे पाँव न परैं तुम्हारे बने फिरत अलबेले।
सहरा की तपती बालू में लोटो जाइ अकेले।।

भग्न द्वार की एक ईंट जो सिर पर गिरै तुम्हारे।
देख पडे तो तुम्हें तुरत ही दिन के फेर हमारे।।

(नेपथ्य में स्त्री स्वर से)

हे हे सुजान! वसन्त, तुम नहिं नेकु मन में जानियो।
कहि गए जो बात ये सब बुध्दि विभ्रम जानियो।।

जब बुरे अति दुख भरे दिन भाल पै मँड़रात हैं।
सत असत् औ दु:ख सुख के भेद, सब मिटि जात हैं।।

भारत (चैतन्य होकर)

कौन आस धरि हाँ, वसन्त, अब आजु फेरि हौ आए।
हरे हरे दु्रम दल सजवाए, सुमन भार लदवाए।।
आवत सुनैं तुम्हें जब, भाई लज्जा आइ दबावै।
तन में रुधिर नहीं इतना जो तुमसों धाइ मिलावै।।

का लैके हम हाय अकिंचन स्वागत करैं तिहारे।
सर्वस खाइ, रोइ दिन बितवत दीन दसा तन धारे।।

कब आओ कब चले जाव यह पूछनहार न पावो।
ऐसी जगह आई मर्य्यादा अपनी आप गँवावो।।

देखत हौ तुम सहस बरस से बीत रही जो मो पै।
नए नए नित बीज विपति के विधि बपु पै मम रोपै।।

वे दिन सपने भये हाय! जब आवहु तुम यहि द्वारे।
सुख सम्पति से भरे हमारे सुत उमंग के मारे।।

शीतल सिंचित उद्यानन महँ तुम कहँ जाइ टिकावैं।
नर नारी जहँ बिबिध भाँति तुहि सखा पूजि सुख पावैं।।

गये दिनन की बात पुरानी क्यों सन्मुख तुम लावत।
क्यों हतभागे दुखी प्रान को आइ आइ कलपावत।।

बिचरहु जाइ और देशन में पड़ी मही हैं सारी।
मोकहँ मृतक मानि मन से निज सब सुधि देहु बिसारी।।

समुझि लेहु सागर जल भीतर भारत गयो समाई।
अथवा रज ह्नै के भूतल से मिल्यो पवन में जाई।।

वसन्त

एक हू कण रेणु की जब लौं यहाँ हम पाई हैं।
आइ के प्रति वर्ष सादर ताहि सीस चढ़ाई हैं।।

यहि पुरानी डेवढ़ी पर सुमन चारि गिराई हैं।
बैठि के मन मारि यहि थल नैन नीर बहाई हैं।।

(दूसरी ओर फिरकर, ऊपर हाथ उठाकर)

हा विधाता! कौन पातक घेरि भारत भाल।
सतत तन पै श्रवत है है विपति बिन्दु कराल।।

क्वधर्म्म पथ को छाड़ि है उन्मत्ता लै करवाल।
कहाँ दीनो पाटि भूतल काटि वनिता बाल।।

कहाँ नाची अग्नि ज्वाला आर्य्य करते छूटि।
कौन धरती भई ऊसर गई इन तें लूटि।।

कहाँ पशुवत गए बाँधे नर समूह अपार।
कौन जन आजन्म तलफ्यो बैठि इनके द्वार।।1

पारसिन को मान मर्द न कियो इन बहु बार।
सेमिरमिस को जाइ ठेल्यो बाबिलन के द्वार।।

देश काँप्यो कौन नहिं सुनि आर्य्य धनुटार।
कौन नायो सीस नहिं दबि आर्य्य भुज-बल भार।।

यव, सुमात्रा आदि द्वीपन थापि निज अधिकार।
कियो अपने हाथ में सब पूर्व को व्यापार।।

अवसि पायो अभय, आयो शरण जो इन पास।
रहो भूतल बीच वाको कौन को पुनि त्रास।।

विविध विद्या कला कौशल जगत में फैलाय!
कियो अपने जान तो उपकार ही इन हाय।।

चीन औ तातार, तिब्बत, मलय, सिंहल, स्याम।
धर्म दीक्षा पाप सादर लेई इनको नाम।।

हा कृतघ्न प्रतीचिजन सब सीखि इन ते ज्ञान।
विभव मद में चूर सकुचत करत अब सम्मान।।
हे दयामय! द्रवहु अब तो कहत नाथ पुकारि।
वेगि भारत को उबारो दुसह दुख सब टारि।।

भारत

प्रियवर! सब मेरे कर्म्म ही के उभारे।
हठ करि दुख आवे सामने जो हमारे।।
यदपि नहिं विदेशी आहि की फूँक लागी।
छय हित छितरानी द्वेष की चंद्र आगी।।

श्रमण मठ जराये शान्त वासी समेत।
भवन बहु ढहाये क्रोध में है अचेत।।
बहु दिन नहिं बीते सामने सोइ आयो।
गरजि गजनवी ने गर्व सारो गिरायो।।

अरि दल चढ़ि आयो साथ लै एक गोरी।
मम सुत विलगाने प्रीति की डोर तोरी।।

विधि बस मतवारे वैर की रीति ठानी।
कहि कहि हम हारे सीख ना नेकु मानी।।
पर अब सब छोड़ो पूर्व की ये कहानी।
नहिं कछु सरि जैहैं गीत गाये पुरानी।।
अब कहहु कहाँ ते आवते डारि फेरी।
कहहु कछु नई जो बात संसार केरी।।

वसन्त प्रवीर जापान प्रचण्ड रूस हीं।
परास्त कीनो तुमने सुन्यो नहीं।।

भारत अरे! अरे!! का कहिगे विचार लो।

वसन्त कही हमारी सब सत्य धार लो।।

भारत (लंबी साँस लेकर)

"कोउ नृप होइ हमें का हानी,
चेरि छोड़ि नहिं होउब रानी।"
(प्रवेश भारत महिषी का)
वसन्त (सामने देखकर)
माता! प्रणाम तुव पायन में हमारो।

भा. म. बाढ़ै प्रताप नित भूतल में तुम्हारो।।
(भीतर से 'वन्देमातरम्' की ध्वनि)
वसन्त (गद्द होकर)
हे मातु! देइ यह आजु कहा सुनाई?
(फिर सहसा चौंककर)
हाँ; हाँ! भली सुध हमें यहि काल आई!
(भारत महिषी के प्रति)
पूरब दिशि अति दूर सिन्धु के नील अंक मधि।
हहरत विपुल तरंग जहाँ चारहु दिशि निरवधि।।

बाली, लम्बक लसैं द्वीप द्वय जब ते न्यारे।
बसैं तहाँ कछु पूर्व सुवन सन्तान तुम्हारे।।

कह्यो अनेक प्रणाम मातु! उन तुव चरनन में।
अरु बोले कहि दियो जाइ हम सुखी भुवन में।।

बीस कोटि सम हमहुँ नेह के हैं अधिकारी।
कबहुँ कबहुँ तो चहिये लेनी खोज हमारी।।

झेली अनेकन कष्ट आजु लौं धर्म्म बचायो।
सुख सो शासन करत 'शशक' गन पै मन भायो।।

1. बाली और लम्बक द्वीप जावा से पूर्व पड़ते हैं। इन दोनों द्वीपों में अब तक हिंदू राज्य वर्तमान हैं। यहाँ के हिंदू लोग सब शैव हैं और चार वरर्णों में विभक्त हैं जिनके नाम उनकी भाषा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वेशव और शूद्र हैं। चतुर्वर्ण को ये लोग चतुर्जन्म' कहते हैं। इन द्वीपों में शालिवाहन का शाका प्रचलित हैं। शैव लोगों में कई ग्रंथ भी प्रचलित हैं जिनमें मुख्य ये हैं'अगम', 'आदिगम', 'सारसमुच्चयागम', 'देवागम', मैश्वरलत्व', 'श्रीकान्तरामम' और 'गम्यागमन' इत्यादि। बहुत से ग्रंथ लुप्त हो गए हैं जिनके विषय में ये लोग भ्रमणकारियों से पूछा करते हैं कि वे भारतवर्ष में मिलते हैं या नहीं। बाली द्वीप के हिंदू लोग पहिले जावा में वास करते थे। वहाँ से मुसलमानों से बचने के लिए 'बहुबाहु' नामक राजा के साथ ये लोग और पूरब बाली द्वीप में चले गये। कहते हैं कि कलिंग देश के शैव लोगों ने द्विजावा में राज्य स्थापित किया था। बाली और लम्बक के आदिम निवासियों का नाम 'शशक' हैं। ये 'शशक' लोग मुसलमान हो गए हैं और बाली के हिंदू राजा की प्रजा हैं।

रहि सब बिधि स्वाधीन आर्य्य गौरव हम ढोवत।
कछुक सहारो हेतु, मातु! हम तुम दिसि जोवत।।

अश्वमेध हय सरिस मिशनरी दूत आई यहँ।
कबहुँ श्वेतपग धारि जायँ परावन करि भू कहँ।।

पै कबहूँ नहिं भूलि भारती बन्धु एक जन।
धारयो पग यहि भूमि निरखते हम भरि नैनन।।

प्रेम सहित भरि अंक, लावते निज घर, कर गहि।
दृढ़ करते निज धर्म्म तासु उपदेश ललित लहि।।

और भाव ते हमहुँ पुलकि तेहि ओर देखकर।
अहैं हमारे और बन्धु कछु बसत धरनि पर।।

भारतमहिषी

गाथा मेरी सुना के, बहु विधि कहियो जाई असीस मेरी!
बाढ़ै पूरी कला ते, जगमहँ जस ले प्रीति छावैं घनेरी।।

काहू हैं योग नाहीं, यद्यपि हम तऊ, सीख हैं देति याही।
धारे रहैं सदा ही, धरम प्रिय वही, छोड़ि हैं नाहिं ताही।।

सुतगन की मेरे कौन बात।
जैसे हैं वे तुम देखि जात।।
करि सकैं और का भुवन माँहिं।
आगम को जिनको चेत नाहिं।।

आलस की जिनकी परी बानि।
नहिं देखि सकैं निज लाभ हानि।।
तिल, नील, लाख, सन अरु कपास।
हम देत इन्हैं यह धरि आस।।

कछु कला सहित निज कर डुलाय।
करि हैं निज जीवन को उपाय।।
पर हाय विदेशिन हाथ जाय।
धरि आवत हैं ये सब उठाय।।

पुनि ताकत हैं बनि बनि चकोर।
परिधान आदि हित तासु ओर।।
आवत जब बनि बनि विविध ढंग।
की वस्तु अनोखी रंग बिरंग।।

हैं देखि देखि ये होत दंग।
धावत मुँह के बल भरि उमंग।।
सीटी सुनि जय जयकार बोलि।
घर में जो पावैं धन टटोलि।

चौकिन पर यूरोप-देव केर।
तैरत जो जल में चहूँ फेर।।
फेंकत दूरहि सों कर बढ़ाये।
लौटत प्रसाद नव पाय पाय।।

झलकाइ अंग पट पर महीन।
बनि के तब निकलत कोउ 'अमीन'।।
सिर के ऊपर कोइ है निहाल।
टाँगत नवीन शीशे विशाल।।

हैं पास सैकड़ों बन्धु प्रान।
त्यागत बिनु भोजन, नाहिं ध्यान।।
जिनके भाई बहु एक बेर।
भोजन करि बितवत दिवस फेर।।

उनको जग के बिच नहिं बुझाय।
ऊँचो सिर कैसे होत, हाय!
इनको यह ढीले ढंग देखि।
हरखत परदेसी जन विमेखि।।

जब करैं दु:ख से ये पुकार।
कोउ सुनत न ज्यों रोवत सियार।
समुझाइ थकीं हम बार बार।।
नहिं सँभलत हैं ये अति गँवार।।

(नेपथ्य में)

सहि चुके जननी! बहु यातना,
वचन ना कबहूँ अब टारि हैं।
प्रण करैं 'पर आस किये बिना,
अवसि आपुहि आप उबारि हैं।।

('वंदेमातरम् की भीषण ध्वनि)
(पटाक्षेप)